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दृश्य 1:
2014 से अब तक की सरकारी उपलब्धियों की प्रचार के लिए भारत के प्रत्येक जिले में रथ यात्रा चल रही है।रथ प्रभारी’ नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार और विपक्ष में क्यों विवाद हो रहा है? इस प्रचार यात्रा के प्रत्येक रथ की जिम्मेदारी एक आईएएस अधिकारी को सौंपी गई है।
दृश्य 2:
भारतीय सीमा पर अपनी जिम्मेदारियों का पालन करते हुए, एक सैनिक अब अपनी सालाना छुट्टी का समय अपने गाँव में बिता रहा है। वह अब अपने जीवन के इस अलग हिस्से में स्थानीय लोगों के बीच बैठकर उन्हें सरकारी योजनाओं की जानकारी प्रदान कर रहा है। उसकी बातों में उसकी सेवा और समर्पण की भावना स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यदि केंद्र सरकार की योजनाएँ और उनकी मंशा सफल होती है, तो ऐसे दृश्य हमें अक्सर देखने को मिलेंगे, जहाँ सैनिक अपनी सेवा के अलावा भी समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का पालन करते हुए नजर आएंगे।
रथ प्रभारी’ नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार और विपक्ष में क्यों विवाद हो रहा है?
18 अक्तूबर को वित्त मंत्रालय के पत्र के माध्यम से जानकारी मिली कि सरकार ने विभागों से ज़िला रथ प्रभारी के रूप में संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव स्तर के अधिकारियों का नामांकन माँगा है।
इस प्रस्ताव के अनुसार, 20 नवंबर 2023 से 25 जनवरी 2025 तक “विकसित भारत संकल्प यात्रा” के अंतर्गत सरकार की पिछले 9 वर्षों की उपलब्धियों का प्रदर्शन और उत्सव आयोजित किया जाएगा। यह यात्रा 765 ज़िलों में होगी, जिसमें 2.69 लाख ग्राम पंचायतें शामिल होंगी।
सरकार का उद्देश्य इस यात्रा के माध्यम से लोगों तक अपनी उपलब्धियों की जानकारी पहुंचाना है। इसके लिए उचित समन्वय और निगरानी की जरूरत होगी, इसलिए विभिन्न स्तर के अधिकारियों को रथ प्रभारी के रूप में तैनात किया जाएगा।
हालांकि, इस निर्णय पर विपक्ष ने सख्त आलोचना की है। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर ट्वीट किया कि सिविल सर्वेंट्स को सरकारी प्रचार के लिए कैसे तैनात किया जा सकता है? उनका मानना है कि यह निर्णय सरकारी प्रचार के लिए अधिकारियों का दुरुपयोग है। इसी तरह, वरिष्ठ कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने भी इस निर्णय को अहंकारोन्मादी बताया।
इस प्रकार, सरकार के इस नए प्रस्ताव पर विपक्ष और सरकार के बीच तनाव बढ़ गया है। आने वाले समय में इस पर किस प्रकार की प्रतिक्रिया आती है, यह देखना रहेगा।
भारतीय जनता पार्टी, जिसे देश की सबसे बड़ी और प्रमुख पार्टी माना जाता है, के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफार्म ‘एक्स’ पर एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने कांग्रेस पार्टी की आलोचना की।
नड्डा ने अपने ट्वीट में लिखा, “मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि कांग्रेस पार्टी को योजनाओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए ज़मीनी स्तर तक पहुँचने वाले लोक सेवकों से दिक़्क़त है।” उनका मानना है कि जब सरकार अपनी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने का प्रयास कर रही है, तो उसमें कोई गलती नहीं है।
नड्डा ने आगे बताया कि शासन का मूल सिद्धांत है कि वह अपनी योजनाओं और सेवाओं को सभी तक पहुंचाए। उन्होंने कहा, “शायद कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक अनजान अवधारणा है लेकिन सार्वजनिक सेवा प्रदान करना सरकार का कर्तव्य है।” उनका विचार है कि जब मोदी सरकार योजनाओं की संतृप्ति को सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है, तो उससे किसी को समस्या नहीं होनी चाहिए।
नड्डा ने आलोचना करते हुए लिखा, “लेकिन कांग्रेस की रुचि केवल ग़रीबों को ग़रीबी में रखने में है और इसलिए वे विरोध कर रहे हैं।” उनका मानना है कि कांग्रेस पार्टी जनता की भलाई की बजाय अपने राजनीतिक हित में ज्यादा रुचि रखती है।
इस प्रकार, जेपी नड्डा ने स्पष्ट रूप से कांग्रेस पार्टी की आलोचना की और उन्होंने बताया कि मोदी सरकार का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ जनता की भलाई है। उन्होंने सरकार के प्रयासों की सराहना की और कांग्रेस पार्टी को उनके विरोधी दृष्टिकोण के लिए टिप्पणी की।
खड़गे ने सरकार पर हमला बोला।
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने मोदी सरकार की नीतियों और उसके तरीके को निशाना बनाया। उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे व्यक्त किया कि सरकार अब सभी सरकारी विभागों और संस्थानों का उपयोग अपनी प्रचार में कर रही है।
खड़गे ने आरोप लगाया कि सरकार अब सभी सरकारी एजेंसियाँ और विभागों को अपने प्रचार में उपयोग कर रही है, जिससे लोकतंत्र और संविधान की आधारभूत प्रतिष्ठा को खतरा हो सकता है। उन्होंने इसे एक गंभीर समस्या मानते हुए कहा कि इस प्रकार की नीतियाँ नौकरशाही और सशस्त्र बलों के राजनीतिकरण को बढ़ावा देंगी, जिससे देश की डेमोक्रेटिक प्रक्रिया में बाधा आ सकती है।
उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भी लिखा, जिसमें उन्होंने सरकार की इस नीति की आलोचना की। पत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे व्यक्त किया कि सरकारी अधिकारियों को राजनीतिक प्रचार में शामिल करना केंद्रीय सिविल सेवा नियमों का उल्लंघन है।
खड़गे ने आगे बताया कि सरकार की इस नीति से जनता के बीच में भ्रांति पैदा हो सकती है कि सरकारी अधिकारियों का कार्यकलाप और उनकी जिम्मेदारियाँ केवल सत्तारूढ़ पार्टी के प्रचार में ही सीमित हैं। उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस प्रकार की नीतियाँ जनता के बीच में सरकारी अधिकारियों की निष्पक्षता और उनकी प्रतिष्ठा को खतरा पहुंचा सकती हैं।
अंत में, खड़गे ने सरकार से अपील की कि वह इस प्रकार की नीतियों को पुनः विचार करे और जनता की भलाई और लोकतंत्र की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उचित निर्णय ले।
कांग्रेस का आरोप- सेना को अपना ‘सैन्य राजदूत’ बना रही है सरकार
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने हाल ही में रक्षा मंत्रालय के उस आदेश को निशाना बनाया, जिसमें सैनिकों को अपनी वार्षिक अवकाश पर सरकारी योजनाओं का प्रचार करने के लिए निर्देशित किया गया। खड़गे ने इसे एक चिंताजनक स्थिति मानते हुए कहा कि इससे सैनिकों को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा रहा है।
उन्होंने स्पष्ट रूप से इसे व्यक्त किया कि सेना प्रशिक्षण कमान को जवानों को देश की सुरक्षा के लिए तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए, न कि सरकारी योजनाओं का प्रचार करने में। उन्होंने यह भी जोड़ा कि हर सैनिक की पहली प्राथमिकता उसकी सेवा और देश की सुरक्षा है, और उसे इस तरह की राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिए।
खड़गे ने आगे बताया कि जवानों को सरकारी योजनाओं का प्रचार करने के लिए मजबूर करना उनकी स्वतंत्रता का उल्लंघन है। वे बोले कि जवान अपनी वार्षिक छुट्टी पर अपने परिवार के साथ समय बिताने का हक़ रखता है, और उसे इस तरह की गतिविधियों में शामिल होने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
उन्होंने यह भी जोड़ा कि लोकतंत्र में सशस्त्र बलों को राजनीति से दूर रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है, और उन्हें राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करना देश के लिए खतरनाक हो सकता है। उन्होंने सरकार से अपील की कि वह इस प्रकार की नीतियों को पुनः विचार करे और सैनिकों की स्वतंत्रता और सम्मान को ध्यान में रखते हुए उचित निर्णय ले।
अंत में, खड़गे ने कहा कि हमारे सैनिकों की निष्ठा और समर्पण उनकी सेवा और देश के प्रति है, और उन्हें राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करना उनकी इस निष्ठा का अपमान है।
सरकार को अपना कार्य करने दो, चुनाव जब आएंगे तब होंगे
भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने हाल ही में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर एक पोस्ट शेयर किया, जिसमें उन्होंने सरकार के निर्णयों का समर्थन किया और विपक्ष के आलोचना का जवाब दिया।
मालवीय ने अपने पोस्ट में लिखा, “क्या भारतीय सरकार में कार्यकर्ताओं को उनके कार्यक्रमों और योजनाओं के बारे में जनता से बात करने का अधिकार नहीं है? क्या उन्हें सिर्फ अपने कार्यालयों में बैठकर काम करना चाहिए, बिना जनता के बीच जाए?” उन्होंने आगे लिखा कि सरकारी अधिकारियों का मुख्य कार्य है जनता की सेवा करना, और वे जैसे तरीके से जनता की सेवा करें, वह सरकार को तय करना चाहिए।
मालवीय ने उल्लेख किया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री बनते ही यह सुनिश्चित किया था कि सभी सरकारी अधिकारी जून-जुलाई में मैदान में जाएं ताकि सभी स्कूल जाने वाले बच्चों का नामांकन सुनिश्चित हो सके। उन्होंने इसे गुजरात में शिक्षा की सार्वभौमिकता को सुनिश्चित करने का एक महत्वपूर्ण कदम बताया।
उन्होंने आगे बताया कि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि उनकी सरकार द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाएं, जैसे पीएम आवास योजना, पीएम किसान, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत और अन्य, अगले छह महीनों में पूरी तरह से लागू हों।
मालवीय ने अंत में कहा, “जब चुनाव होंगे, तब होंगे, लेकिन अब सरकार को अपना काम करने दीजिए।” उन्होंने विपक्ष को आलोचना करने के बजाय सरकार के कार्यों को समझने की सलाह दी।
प्रशासन स्वतंत्र और उदार होता है।
प्रोफेसर अपूर्वानंद, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग में हैं, वे न केवल शैक्षिक जगत में अपनी पहचान बना चुके हैं, बल्कि राजनीतिक विश्लेषण में भी उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। वे नौकरशाही और उसकी भूमिका पर अपने विचार रखते हैं, जिसे वे आधुनिक राज्य की महत्वपूर्ण खासियत मानते हैं।
अपूर्वानंद जी के अनुसार, नौकरशाही वह तत्व है जो राजनीतिक शक्तियों से अलग होकर कार्य करती है। इसका मुख्य उद्देश्य सेवा करना है, न कि राजनीतिक दलों का प्रचार। वे इसे लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में देखते हैं, जो सत्ता में रहनेवाली पार्टी से स्वतंत्र होकर कार्य करती है।
अपूर्वानंद जी इसे भारतीय प्रशासनिक प्रणाली की एक अद्वितीयता मानते हैं, जिसमें नौकरशाही निष्पक्षता और उदारता से कार्य करती है। वे मानते हैं कि जब यह नौकरशाही राजनीतिक दबाव में आती है, तो इसका प्रभाव लोकतंत्र पर भी पड़ता है।
वे इसे एक चिंताजनक स्थिति मानते हैं, जब नौकरशाही राजनीतिक दलों के प्रचार में शामिल हो जाती है। उनका मानना है कि नौकरशाही को अपने कार्य में पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए, ताकि वे निष्पक्षता से सेवा कर सकें।
अपूर्वानंद जी ने यह भी उल्लेख किया कि भारत में नौकरशाही का चयन एक विशेष प्रक्रिया से होता है, जो पूरी तरह से निष्पक्ष है। इस प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि चयनित व्यक्ति राजनीतिक दलों से मुक्त हो।
अंत में, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने यह भी जोड़ा कि नौकरशाही की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना हमारे लोकतंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
‘यह केंद्र-राज्य संबंधों का प्रश्न है।’
पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार, जो एक प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक भी हैं, ने हाल ही में केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों के बीच बढ़ते तनाव को चर्चा में लाया।
वे याद दिलाते हैं कि इस तरह की कोशिश पहले भी हुई थी। “राजीव गाँधी ने पंचायती राज संशोधन के साथ एक ऐसी पहल की थी, जिससे उन्होंने सीधे ज़िला मजिस्ट्रटों से संपर्क साधा। इससे विपक्षी राज्य सरकारों को लगा कि उन्हें उपेक्षित किया जा रहा है।” प्रोफ़ेसर आशुतोष इसे 1989 के चुनाव के पूर्व की घटना मानते हैं, जब राजीव गाँधी ने इस पहल को आगे बढ़ाया।
वे आगे बताते हैं, “आज भी ऐसा अनुभव हो रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सीधे आल इंडिया सर्विसेज़ के अधिकारियों से संपर्क साध रहे हैं। उनका मानना है कि इससे यह संकेत मिलता है कि केंद्र सरकार इन सेवाओं को अपने अधीन मानती है।”
प्रोफ़ेसर आशुतोष के अनुसार, यह सब कुछ केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों का मामला है। “जब केंद्र सरकार सीधे आल इंडिया सर्विसेज़ के अधिकारियों से संपर्क करती है, तो इससे यह संकेत मिलता है कि वह राज्य सरकारों को उपेक्षित कर रही है।”
उनका मानना है कि इस प्रकार की कोशिशों से राज्य सरकारों की भूमिका को कमजोर किया जा रहा है। “अगर आल इंडिया सर्विसेज़ के अधिकारियों को लगता है कि वे केंद्र सरकार के अधीन हैं, तो उनका यह मानना सही नहीं होगा कि वे राज्य सरकारों के लिए भी काम करते हैं।”
अंत में, प्रोफ़ेसर आशुतोष कहते हैं कि इस प्रकार की कोशिशों से लोकतंत्र में संकट आ सकता है। “जब राज्य सरकारों की भूमिका को अलग किया जाता है, तो इससे लोकतंत्र में संकट उत्पन्न होता है।”
“सेना को विचारधारा में ले जाना अत्यंत जोखिमपूर्ण है।”
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद मानते हैं कि सेना को विचारधारा में ले जाना अत्यंत जोखिमपूर्ण है।
उनका मानना है कि “सेना की प्राथमिकता राष्ट्र की सेवा है, न कि किसी विचारधारा का प्रचार करना। लेकिन हाल के समय में हमने देखा है कि कुछ सैन्य अधिकारियों ने विचारधारा संबंधित टिप्पणियाँ की हैं, जो चिंताजनक है।”
वे उल्लेख करते हैं, “अमेरिका में ट्रंप के कार्यकाल में, एक पुलिस अधिकारी ने स्पष्ट किया था कि उनकी पहचान संविधान से है, न कि किसी पद से। यही स्वतंत्रता की असली भावना है।”
प्रोफ़ेसर अपूर्वानंद बताते हैं कि भारतीय सेना को उसकी पेशेवरता के लिए सम्मान मिला है और लोग उस पर विश्वास करते हैं, चाहे वो किसी भी धर्म या समुदाय से हों।
सैनिकों को सरकारी योजनाओं का प्रचार करने के विचार पर, प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, “अगर ऐसा हो रहा है, तो यह गलत है। ऐसी पहलें सत्ता में अस्थिरता और अनिश्चितता का संकेत देती हैं। INDIA गठबंधन के आगमन के बाद, सरकारी नीतियों में एक नई कड़ीनता देखने को मिली है। अब आगे क्या होगा, यह देखना है।”
रक्षा विशेषज्ञ सुशांत सिंह ने अंग्रेज़ी अख़बार ‘डेक्कन हेराल्ड’ में लिखा कि हालांकि इस पहल का दावा है कि इसका उद्देश्य राष्ट्र-निर्माण है, लेकिन “सेना मुख्यालय के द्वारा प्रस्तुत प्रत्येक योजना में मोदी सरकार का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। अन्यथा, इसमें यूपीए की एनआरईजीएस जैसी योजनाएँ या विपक्ष द्वारा प्रशासित राज्यों की योजनाएँ भी शामिल होती।”
सुशांत सिंह विश्लेषण करते हैं कि यह एक स्पष्ट रूप से राजनीतिक पहल है जिसमें सेना को मोदी सरकार के प्रतिनिधित्व में सहमति देने के लिए मान्यता दी गई है।
उनका मानना है कि “राजनीतिक उद्देश्य स्पष्ट है। 2014 के बाद, मोदी ने जनता के दिल में सेना और उसके सैनिकों के साथ अपनी पहचान मजबूत करने की धारा बनाई है।”
सुशांत सिंह आगे लिखते हैं कि भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली ने सेना को समाज से पृथक रखने का संकल्प लिया था, लेकिन अब वह धारा बदल रही है। “अब इन सैनिकों को भाजपा के सहयोगी या, अधिक सही शब्दों में, मोदी के राजनीतिक प्रतिनिधियों के रूप में परिवर्तित किया जा रहा है।”